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भारत विविध भाषाओं का देश है। हर राज्य की अपनी भाषायी और सांस्कृतिक पहचान होती है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा प्रमुख है, लेकिन यहाँ हिंदी भाषी प्रवासी भी बड़ी संख्या में रहते हैं। हाल के वर्षों में हिंदी और मराठी भाषा को लेकर विवादों ने सामाजिक सौहार्द को प्रभावित किया है। इस रिपोर्ट में इस समस्या के कारणों, राजनीतिक पहलुओं, वर्गीय प्रभावों और संभावित समाधान का विश्लेषण किया गया है।
भाषाई मुद्दों को जाति और क्षेत्रीयता के साथ जोड़कर एक ‘हम बनाम वे’ की राजनीति की जाती है। कुछ क्षेत्रीय दल हिंदी भाषी प्रवासियों को "बाहरी" बताकर स्थानीय बनाम प्रवासी का मुद्दा उठाते हैं। इसका सीधा संबंध वोट बैंक से होता है।
भाषा के नाम पर हिंसक प्रदर्शन, हिंदी साइनबोर्ड हटाना, हिंदी फिल्मों का विरोध, आदि घटनाएँ सामने आती हैं। ये घटनाएँ अक्सर राजनीतिक संरक्षण में होती हैं।
राज्य और केंद्र सरकारें कई बार विवादों पर कड़ा रुख नहीं अपनातीं ताकि वोट बैंक प्रभावित न हो। प्रशासनिक कार्रवाई भी धीमी रहती है।
भाषा विवाद का सबसे विडंबनापूर्ण पहलू यह है कि इसका निशाना आमतौर पर मध्यम वर्ग और गरीब तबके के लोग ही बनते हैं।
अभिनेता, उद्योगपति, राजनेता, और सेलिब्रिटी जब हिंदी में संवाद करते हैं, तो उन्हें "सम्मान" मिलता है या उनकी भाषा पर कोई आपत्ति नहीं जताई जाती।
लेकिन जब रिक्शावाला, मजदूर, दुकान चलाने वाला, या छोटा व्यापारी हिंदी बोलता है, तो उसे "बाहरी" या "मराठी विरोधी" कहकर अपमानित किया जाता है या उस पर हमला भी हो सकता है।
उदाहरण: कोई बड़ा बॉलिवुड स्टार जब सार्वजनिक रूप से हिंदी में बोलता है, तो उस पर कोई आपत्ति नहीं की जाती। लेकिन फुटपाथ पर दुकान चलाने वाले व्यक्ति के साइनबोर्ड पर अगर हिंदी लिखा हो, तो उसे हटाने या उस पर हमला करने की घटनाएँ सामने आती हैं।
नतीजा: यह साफ दिखाता है कि यह विवाद सांस्कृतिक नहीं बल्कि वर्ग आधारित भी है। जिनके पास ताकत या प्रभाव है, उन्हें छूट मिलती है, जबकि कमजोरों को ही निशाना बनाया जाता है। यह प्रवृत्ति सामाजिक असमानता को और गहरा करती है।
महाराष्ट्र जैसे विविधता से भरे राज्य में भाषा को विभाजन का हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए। भाषा पहचान का हिस्सा है, लेकिन जब इसे राजनीति और वर्ग भेदभाव का उपकरण बनाया जाता है, तो सामाजिक ताना-बाना बिगड़ता है। सरकार, मीडिया और समाज को मिलकर ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक लगानी चाहिए और भाषाओं को जोड़ने का माध्यम बनाना चाहिए, तोड़ने का नहीं।
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